रविवार, 9 अगस्त 2015
बीजेपी के भाग से बिहार का छींका टूटेगा ?
सोमवार, 3 अगस्त 2015
फर्स्ट डिवीजन की मौत !
IIT रुडकी के छात्र महीने भर के ड्रामे के बाद आखिर वापस ले लिए गए....भले हालात कुछ दूसरे हों लेकिन जिस दिन से ये मामला सामने आया था उसी दिन से मुझे अपने वो दोस्त याद आने लगे जो करीब ३० साल पहले अचानक गुमनामी में खो गए, आज तक ना उनका कोई फोन आया ना किसी से उनके बारे में सुनने को मिला, क्या किया होगा, क्या उन्होने नदी में कूद कर जान दे दी होगी या किसी ट्रेन के नीचे लेट गए होंगे। अगर ऐसा हुआ होगा तो सिर्फ उस शख्स के पीछे जिसे छात्रों के भविष्य ये ज्यादा अपने स्कूल की झूठी इज्जत की चिंता थी।
कहानी लखनऊ के एक नामी स्कूल से जुड़ी है नाम बताना उतना जरूरी इसलिए भी नहीं क्योंकि जिन तक ये बात पहुंचानी है उनको इसमें अपनी आत्मा जरूर दिख जाएगी, हां तो १९८५ के आसपास की बात होगी, नौवीं पास कर हम दसवीं में गए थे, हमें सुबह ८ बजे से शाम ६ बजे तक स्कूल नें ही पढना होता था, पढने के बजाय घोटा लगाना कहें तो ज्यादा सही होगा, क्योंकि हाईस्कूल की पढाई के लिए कितनी देर पढने की जरूरत होती है.......लेकिन हमारे स्कूल में तो कुछ बच्चों को तस्कूल में ही बिस्तर तक लगवा दिए गए, और जो बच्चे इसके बाद भी तोतों को रटाने वाले रिंग मास्टरों को कम से कम फर्स्ट डिवीजन लाने का भरोसा नहीं दिला पाए उन्हें स्कूल छोडने का आदेश सुना दिया गया, इनमें से कई केजी नर्सरी से इसी स्कूल में पढ रहे थे, बहुत रौए गिडगिडाए, उन्ही मां बापों ने आकर उनके पांव भी पकडे जिन्हे तराजू में फल फूल से तौलने का स्कूलवाले ढकोसलेबाज नाटक रचते थे, लेकिन विश्व शांति का लबादा ओढकर घूम रहे मार्केटियरों को जरा भी दया ना आई, २५-३० बच्चों को एक झटके में निकाल दिया गया, आखिर क्यों किस बात का गुरूर था उन्हें, छटनी पहले पांचवीं में, फिर आठवीं में, फिर नवीं में ......फिर भी दिन रात रटाने वाले बच्चों को भी अपनी उम्मीदों पर ढाल नहीं सके तो ये बच्चों की नहीं रिंगमास्टरों की गलती है, जिस लडके ने हाईस्कूल में पूरे यूपी में टॉप किया वो अगले साल फर्स्ट डिवीजन भी नहीं ला सका, गलती उस लडके में नहीं स्कूल के सिस्टम में थी, इधर बीच सेशन में निकाले गए लडकों को कहीं दाखिला मिल नही सकता था, सो लोग मारे मारे घूमते रहे साल बरबाद हुआ होगा, कुछ इस जिल्लत में आत्मा से मर गए होंगे, कुछ नफरत की आग में जल गए होंगे, ३० साल बाद नाम तो किसी के याद नहीं लेकिन उनके वो दर्द भरे चेहरे आज भी याद हैं, इव सब के कत्ल का जिम्मेदार जो भी हो उसे ईंट पत्थर की अदालतों में शायद सजा ना दी जा सके लेकिन कुदरत उनका इंसाफ जरूर करे, जिन मां बापों की आंखों के सपने छिने उनके गुनहगारों को कुदरत वैसी ही सजा दे। स्कूल के मेरे कुछ दोस्तों कुछ अध्यापकों को शायद मेरी बातें अच्छी ना लगें उनसे मैं माफी चाहता हूं लेकिन क्या करूं फर्स्ट डिवीजन का शोकेस लगाकर अपनी दुकान चमकाने और बचपन की हत्या करने वालों का असली चेहरा भी तो सामने लाना जरूरी है। स्कूल के २०० बच्चों में से छाटकर १०० बच्चों को अव्वल दिखाना कोई बड़ा काम नहीं है, हम तो तुम्हें तब गुरु मानेंगे जब सारे २०० बच्चों को तुम अव्वल वाले मुकाम पर पहुंचा दोगे।
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