मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

जब राजेंद्र यादव को कसाई बना दिया था मैंने…. !

दिल्ली- नोएडा के बीच आपको सुबह-शाम यात्रा करनी हो तो किसी सरदर्द से कम नहीं, भयंकर जाम हर सड़क पर मिल जाएगा, किसी तरह मोटरसाइकिल से दफ्तर पहुंचा तो साढे नौ बज रहे थे, अपनी सीट पर पहुंचा..टीवी बंद पड़ा था, ऑन किया 9.30 की हेडलाइन चल रही थी, आखिरी हेडलाइन आते आते टीवी ऑन हुआ तो सामने देखा राजेंद्र यादव जी के ना रहने की दुखद खबर थी...अरे मुझे सुबह से तो पता ही नहीं चला.. ओह याद आया आज सुबह से घर पर लाइट नहीं थी, इन्वर्टर 42 इंच के टीवी का लोड लेते ही ट्रिप होने लगता है इसलिए चाहकर भी टीवी नहीं खोला था....मैंने अपने सहकर्मी से तस्दीक की- ...अरे राजेंद्र यादव जी नहीं रहे ....यकीन नहीं हो रहा मुझे आज दिन भर वो दिन याद आता रहा ...जब मैं राजेंद्र यादव जी से पहली बार मिला था, और पहली बार में ही अपने अंदर उनकी जो छवि मैंने बना रखी थी, उनके सामने उसे पेश कर दी, वो भी एक कार्टून के रूप में, उस कार्टून में उनपर जबरदस्त कटाक्ष था, फिर भी उन्होंने बड़े ही प्यार से उसपर दस्तखत किए और मुझे प्यार से लौटाया ये कहकर कि इसकी एक फोटो कॉपी उन्हें भी दे दूं । आज मैं अपने पुराने कागजों में वो कार्टून ढूंढ रहा था लेकिन अभी तक मुझे मिला नहीं। बात उन दिनों की है जब मैं आईआईटी कानपुर में टेलिविजन सेंटर में ट्रेनिंग कर रहा था, साहित्य की रुचि मुझे शुरू से ही थी आईआईटी में तो माहौल ही अलग था, साहित्य तो दूर की चीज थी राजनीति की चर्चा भी कम ही सुनाई पड़ती थी, एक लेक्चर हॉल से दूसरे हॉल के बीच साइकिल पर घूमते प्रोफेसर और छात्र एल्फा, बीटा, गामा की लेन में ही रोबोट की तरह चलते नजर आते थे। लेकिन एक प्रकृति के लोग जब एक जगह होते हैं तो मिल ही जाते हैं ऐसा ही हुआ, उन दिनों में आईआईटी में साहित्यकार गिरिराज किशोर जी भी थे, वो क्रिएटिव राइटिंग विंग के सर्वे सर्वा थे, उन्होने एक हिंदी कविता कार्यशाला का आयोजन किया था, रजिस्ट्रार दफ्तर के पास दीवार पर चिपके नोटिसों में से ये नोटिस चिपका देखकर मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि आईआईटी जैसे माहौल में भी कोई कविता, कहानी की बात कर सकता है, इसी कार्यशाला में से मुझे 2-4 दोस्त ऐसे मिले जो आईआईटी से एमटेक या पीएचडी कर रहे थे, उनमें मिलकर मुझे पता चला कि भले वो कंप्यूटर की मशीनी भाषाओं कोबोल, यूनिक्स के बीच रहते हों लेकिन उनके दिल में साहित्य जिंदा था। धीरे धीरे मैं भी 3-4 लोगों के साथ मिलकर मशीनी दुनिया के दोस्तों के साथ साहित्य की पौधों को रोपने लगा था। आईआईटी में हिंदी साहित्य का कारवां यहीं से शुरू हुआ- गिरिराज किशोर जी से मिलकर राजेंद्र यादव, नरेश सक्सेना जैसे तमाम साहित्यकारों को आईआईटी में बुलाया जाने लगा ताकि यहां के छात्र उनसे मिलजुलकर साहित्य के बारे में जान सकें। राजेंद्र यादव जी के आने की खबर हमें पहले से थी, मैं हंस का नियमित पाठक था, भले खरीद कर नहीं पढ़ता था, लेकिन हॉल -4 के रीडिंग रूम में रखी हर हंस का अंक मैंने पूरा पढ़ा था। उस दन गेस्ट हाउस में हम लोग शाम के वक्त राजेंद्र जी से मिलने पहुंचे, बातचीत शुरू हुई .... हम लोग अपनी जिज्ञासाएं उनके सामने रख रहे थे वो बड़े ही प्यार से हमारी बातों का जवाब दे रहे थे, मैं बातचीत नोट भी कर रहा था, लेकिन मेरे नोट पैड के बीच रखा कार्टून बार बार सामने आने को बेताब हो रहा था, मुझे डर भी था कि कार्टून देखते ही वो नाराज हो सकते हैं इसलिए पहले ही तय कर लिया था कि कार्टून कांड सबसे आखिर में ही किया जाए। हमने राजेंद्र जी को शॉपिंग सेंटर में बने एकमात्र रेस्टोरेंट में डिनर के लिए भी मना लिया था। डिनर के बाद हम गेस्ट हाउस फिर लौट आए, राजेंद्र जी ने अपना सिगार फिर सुलगा लिया था...अब वो बेड पर अधलेटे से थे और हम चारों लोग कुर्सियों पर बैठे थे ....जब मैं आश्वस्त हो गया कि राजेंद्र जी हम लोगों से काफी घुल मिल गए हैं तो मैंने बड़ी हिम्मत कर राजेंद्र जी से धीरे से कहा कि मैंने आपका एक कार्टून बनाया है आप देखना चाहेंगे...मैंने कार्टून निकालकर उनकी ओर बढ़ा दिया....पहले वो चौंके फिर देरतक देखने के बाद मुस्कुराए...और बोले...ओह तो आप मुझे इस नजर से देखते हैं...तुमने तो मुझे कसाई ही बना दिया और फिर जोर से हंसे...ओह तो आपने मुझे कसाई ही बना दिया... ! दरअसल हंस पढ़कर मुझे पता नहीं क्यों लगता था कि इसमें अश्लीलता का पुट जानबूझकर डाला जाता है, मुझे लगता था कि प्रेमचंद्र जी के हंस को राजेंद्र जी ने अश्लील बना दिया है, मैंने जो कार्टून बनाया था उसमें लकड़ी के एक गोल बेस पर एक हंस को दोनों पैरों पर खड़ा बनाया था....बगल में राजेंद्र यादव एक बड़ा चाकू लेकर खड़े हैं और हंस के दोनों पंख कटे नीचे पड़े हैं...हंस के दोनों स्तनों को देखकर राजेंद्र जी मुस्कुरा रहे हैं.. राजेंद्र जी ने उसके बाद हमें प्यार से समझाया कि साहित्य में वो सबकुछ होना जायज है जो हमारे समाज में है, जो हमारे समाज से घट रहा है अगर वो साहित्य में दर्ज हो रहा है तो इसमें हर्ज क्या है, आइने का और क्या काम होता है। राजेंद्र जी ने उस कार्टून पर दस्तखत किए और मुझसे कहा कि इसकी एक कॉपी उन्हें भी दे दूं...मैं दूसरे दिन एक डाक्यूमेंट्री शूटिंग के सिलसिले में बाहर चला गया और उन्हें कॉपी नहीं दे पाया, हालांकि बाद में मैंने उन्हे कोरियर से कॉपी भिजवाई पता नहीं उन्हें मिली थी या नहीं ....!