बुधवार, 4 जून 2008

जेठ की तपती दुपहरिया...

जेठ की तपती दुपहरिया
तवे सी तपती धरती,
कुएं पर बने छोटे से गड्ढे में

भरे पानी से
अपनी तृष्णा बुझाते गौरेया के बच्चे,
जो बीच-बीच में पंख फड़फड़ाकर
भिगो लेते हैं पंखों को
इस छोटे से गड्ढे में ही समा गई है शायद उनकी गंगा
दूर खलिहानों में बजती बैलों के गलों में बंधी घंटियां
गेहूं मांडता हरिया,
अनाज ओसाती हरिया की घरवाली
गेहूं को भूसे से अलग करता अंधड़

बार-बार
उतार देता है उसके सिर से घूंघट
लेकिन हर बार हवा का झोंका हौले से
हटा देता है उसका घूंघट,

पर वो बिना झुंझलाए उसी तरह उठाती है घूंघट
जैसे बाग-बार उठाती है मिला हुआ गेहूं और भूसा
सामने की पगडंडी से आती
हरिया की मुनिया
आज सोंधी रोटियों संग लाई है अमियों की चटनी

उधर जंगलजलेबी के पेड़ तले
नंगे पांव जूझते नंग धड़ंग बच्चे

जो कभी धरती की तपन से जल के
तो कभी
बिखरे कांटों की चुभन से
एक पांव उठाकर,
करते हैं असफल प्रयास,
एक ही पांव पर रुकने का
आम के पेड़ों में कूकती कोयल
नीमों पर लदी निबोरियां
सभी झुलसने का ले रहे हैं मजा
जेठ की तपती दुपहरिया में ।